Mihir Bhoj history: सम्राट मिहिर भोज को लेकर गुर्जर और राजपूत समाज के बीच लम्बे वक्त से विवाद चल रहा है। ये विवाद एक बार फिर पश्चिमी यूपी मेरठ के गांव कपसाड़ और दादरी में देखने को मिला । यहां मिहिर भोज दोनों ही समाज आमने-सामने हैं। दोनों ही समुदाय के बीच टकराव की स्थिति बनी हुई है। दरअसल पूरा विवाद सम्राट मिहिर भोज की जाति से जुड़ा हुआ है। गुर्जर समाज के लोग सम्राट मिहिर भोज को गुर्जर कहते हैं। वहीं, राजपूत समाज का कहना है कि वो एक क्षत्रिय राजा थे। लेकिन इसे लेकर TV TODAY BHARAT की टीम ने कुछ विश्लेषण किया है जो इस प्रकार है । को लेकर गुर्जर और राजपूत समाज के बीच लम्बे वक्त से विवाद चल रहा है। ये विवाद एक बार फिर पश्चिमी यूपी मेरठ के गांव कपसाड़ और दादरी में देखने को मिला । यहां मिहिर भोज दोनों ही समाज आमने-सामने हैं। दोनों ही समुदाय के बीच टकराव की स्थिति बनी हुई है। दरअसल पूरा विवाद सम्राट मिहिर भोज की जाति से जुड़ा हुआ है। गुर्जर समाज के लोग सम्राट मिहिर भोज को गुर्जर कहते हैं। वहीं, राजपूत समाज का कहना है कि वो एक क्षत्रिय राजा थे। लेकिन इसे लेकर TV TODAY BHARAT की टीम ने कुछ विश्लेषण किया है जो इस प्रकार है ।
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भारतीय इतिहास में कुछ शासक ऐसे हुए हैं जिन्होंने न केवल अपने समय के राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया, बल्कि कला, संस्कृति और प्रशासन के क्षेत्रों में भी अमिट छाप छोड़ी। 9वीं सदी के प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज इन्हीं में से एक थे। उनका नाम मध्यकालीन भारत के उन शासकों की सूची में आता है, जिन्होंने विदेशी आक्रमणों से देश की सीमाओं की रक्षा की और आंतरिक रूप से स्थिर व समृद्ध शासन स्थापित किया।

हाल के वर्षों में उनका नाम एक बार फिर सुर्खियों में आया है — इस बार कारण उनके योगदान नहीं, बल्कि उनकी जातीय पहचान को लेकर छिड़ा विवाद है। मेरठ जिले के कपसाड़ गांव में लगाए गए स्मृति द्वार पर लिखे गए “राजपूत सम्राट” शब्दों ने गुर्जर समाज के एक वर्ग को आक्रोशित कर दिया। इसने यह प्रश्न खड़ा कर दिया कि क्या आज के समय में हम इतिहास को तथ्यों के आधार पर देख पा रहे हैं, या फिर जातीय और राजनीतिक दृष्टिकोण से उसे पुनः परिभाषित कर रहे हैं।
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मिहिर भोज का ऐतिहासिक परिचय
मिहिर भोज (जिसे भोज प्रथम भी कहा जाता है) का शासनकाल 836 ई. से 885 ई. के बीच माना जाता है। वे गुर्जर-प्रतिहार वंश के सबसे शक्तिशाली सम्राट थे। इस वंश का उदय लगभग 8वीं सदी में हुआ था और यह ग्वालियर, कन्नौज और राजस्थान के बड़े हिस्सों में फैला था।
मिहिर भोज के पिता रामभद्र थे, जिन्होंने कुछ समय शासन किया, लेकिन राजनीतिक दृष्टि से वे उतने सक्षम नहीं माने गए। मिहिर भोज के सत्ता संभालने के बाद प्रतिहार साम्राज्य ने नई ऊर्जा प्राप्त की। उन्होंने साम्राज्य का विस्तार किया और प्रशासनिक ढांचे को संगठित किया।
नाम में “गुर्जर” शब्द का महत्व
इतिहास में उनके वंश का नाम अक्सर “गुर्जर-प्रतिहार” या “प्रतिहार” मिलता है। “गुर्जर” शब्द का अर्थ लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि यह शब्द उस क्षेत्र को संदर्भित करता था, जहां यह वंश फल-फूल रहा था — यानी गुर्जरदेश। दूसरी ओर, कुछ इसे उस समय की एक शक्तिशाली जनजाति से जोड़ते हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि आधुनिक “गुर्जर” या “राजपूत” समुदाय से मिहिर भोज का सीधा संबंध था या नहीं।
मिहिर भोज का शासन और उपलब्धियाँ
राजनीतिक विस्तार
मिहिर भोज का साम्राज्य उत्तर भारत के विशाल भूभाग तक फैला था। उनके अधीन कश्मीर, पंजाब, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और बिहार के कई हिस्से आते थे। उन्होंने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया, जिससे उन्हें उत्तर भारतीय राजनीति में प्रमुख स्थान मिला।
अरब आक्रमणों पर रोक
8वीं और 9वीं सदी में अरब आक्रमणकारी सिंध और पश्चिमी भारत पर लगातार दबाव बना रहे थे। मिहिर भोज ने इन आक्रमणों को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने अपने साम्राज्य की पश्चिमी सीमाओं को मज़बूत किया और अरबों को आगे बढ़ने से रोका।
संस्कृति और कला का संरक्षण
मिहिर भोज के शासनकाल में कला और स्थापत्य का उल्लेखनीय विकास हुआ। ग्वालियर किला, नागर शैली के मंदिर और शिलालेख उनके युग की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाते हैं। उन्होंने साहित्यकारों और विद्वानों को संरक्षण दिया।
प्रशासनिक दक्षता
मिहिर भोज ने कर व्यवस्था को संगठित किया और स्थानीय प्रशासन को सशक्त बनाया। उनके शासन में कानून-व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया गया, जिससे व्यापार और कृषि दोनों में उन्नति हुई।

कपसाड़ विवाद: घटना और पृष्ठभूमि
विवाद की शुरुआत
सितंबर 2025 में मेरठ जिले के सरधना विधानसभा क्षेत्र के कपसाड़ गांव में “सम्राट मिहिर भोज स्मृति द्वार” का उद्घाटन हुआ। स्मृति द्वार पर “राजपूत सम्राट मिहिर भोज” लिखा था। गुर्जर समाज ने आपत्ति जताई कि मिहिर भोज प्रतिहार वंश के थे, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से “गुर्जर-प्रतिहार” कहा जाता है। उनका तर्क था कि “राजपूत” शब्द जोड़ना ऐतिहासिक तथ्यों के विपरीत है।
विरोध और प्रदर्शन
गुर्जर समाज के लोगों ने बोर्ड बदलने की मांग की और कलेक्ट्रेट पहुंचकर ज्ञापन सौंपा। उन्होंने आरोप लगाया कि कुछ लोग इतिहास को अपने समुदाय के अनुसार तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहे हैं। प्रशासन ने लोगों से शांति बनाए रखने की अपील की और मामले की जांच का आश्वासन दिया।
स्थानीय राजनीति की भूमिका
ऐसे विवाद अक्सर राजनीतिक रूप से भी संवेदनशील हो जाते हैं। विभिन्न दल अपने-अपने वोट बैंक को साधने के लिए ऐतिहासिक प्रतीकों का सहारा लेते हैं। कपसाड़ विवाद में भी स्थानीय नेताओं ने अलग-अलग पक्ष लिए, जिससे माहौल और गरमाया।
इतिहास बनाम आधुनिक पहचान
मिहिर भोज को लेकर आज जो विवाद खड़ा हुआ है, उसकी जड़ ऐतिहासिक तथ्यों से अधिक आधुनिक सामाजिक-राजनीतिक व्याख्या में है।
- इतिहासकारों की दृष्टि: अधिकांश विद्वान मानते हैं कि प्रतिहार वंश के लिए “गुर्जर” शब्द क्षेत्रीय या वंशीय पहचान को दर्शाता है, पर यह आधुनिक जातियों की तरह स्पष्ट परिभाषित नहीं था।
- सामुदायिक दृष्टि: गुर्जर समाज मिहिर भोज को अपना पूर्वज मानता है, जबकि राजपूत समुदाय भी उन्हें अपने इतिहास का हिस्सा बताता है।
- इतिहास के साथ यह समस्या अक्सर आती है कि मध्यकालीन शासकों की जातीय या सामाजिक पहचान आधुनिक ढाँचों में फिट नहीं बैठती।
विवाद का समाधान: क्या होना चाहिए
ऐसे विवादों का हल तथ्यों और आपसी सम्मान से निकल सकता है। प्रशासन, इतिहासकारों और स्थानीय समुदायों को मिलकर ऐसे संवेदनशील मुद्दों का समाधान खोजना चाहिए।
- शोध आधारित दृष्टिकोण: स्मृति द्वार या बोर्ड पर लिखी जाने वाली जानकारी को प्रमाणित इतिहासकारों से जांचा जाना चाहिए।
- सामाजिक समरसता: किसी भी समुदाय की भावनाओं को ठेस न पहुँचे, इसके लिए संवाद ज़रूरी है।
- राजनीतिक संतुलन: नेताओं को चाहिए कि वे ऐसे मामलों को सस्ती लोकप्रियता पाने का माध्यम न बनाएं।
निष्कर्ष
मिहिर भोज भारतीय इतिहास के उन शासकों में से हैं, जिन्होंने न केवल सीमाओं की रक्षा की, बल्कि संस्कृति, कला और प्रशासन को भी नई दिशा दी। उनकी उपलब्धियाँ निर्विवाद हैं। परंतु, आधुनिक समय में उनके नाम पर होने वाला जातीय विवाद यह दर्शाता है कि हमें इतिहास को तथ्यों की दृष्टि से समझने की आवश्यकता है, न कि केवल भावनात्मक या राजनीतिक दृष्टिकोण से।मिहिर भोज की वास्तविक पहचान उनके कर्म और योगदान में निहित है। अगर हम उनके व्यक्तित्व को सही मायने में सम्मान देना चाहते हैं, तो हमें उनके शासनकाल की उपलब्धियों और देश को एकजुट करने में निभाई भूमिका पर ध्यान देना चाहिए, न कि उनकी जातीय पहचान पर।
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