Shambhavi Choudhary advice to Mahagathbandhan: पटना की सियासत में आज जो दृश्य सामने आया, वह सिर्फ़ चुनावी आंकड़ों का उतार-चढ़ाव नहीं था, बल्कि राजनीतिक परिपक्वता का एक बड़ा सबक था। राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी की नेता शांभवी चौधरी ने जैसे ही मीडिया के सामने कहा— “अपनी हार को एक्सेप्ट करना चाहिए”, उसी पल बिहार की राजनीति की नब्ज़ मानो खुले मंच पर धड़कने लगी। यह बयान सिर्फ़ एक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि उस राजनीतिक संस्कृति पर चोट थी, जो हार को स्वीकारने के बजाय नरेटिव को मोड़ने में लग जाती है।
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चुनाव परिणाम के बाद शांभवी का सीधा और साफ संदेश
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की गहमागहमी अभी ठंडी भी नहीं हुई थी कि विपक्षी महागठबंधन ने ईवीएम पर सवाल खड़े करने शुरू कर दिए। यह वही राजनीतिक चाल है, जिसे जनता कई बार देख चुकी है कभी मशीनों पर आरोप, कभी प्रशासन पर पक्षपात का आरोप, कभी गिनती की प्रक्रिया पर संदेह। लेकिन इस बार शांभवी चौधरी ने बिना लाग-लपेट सीधी बात कह दी जनता ने जो फैसला दिया, उसे मान लेना चाहिए। बार-बार बहाने बनाना राजनीति को कमजोर करता है।
हार स्वीकारने को लेकर महागठबंधन की हिचक क्यों?
यह बयान महज़ एक सलाह नहीं था, बल्कि उन दलों के लिए आईना था, जो अपनी हार को तर्कों और तकनीकों के पीछे छुपाने की कोशिश कर रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषक जानते हैं कि बिहार की जनता किसी भी गलतफहमी में नहीं रहती। वह हर पांच साल में अपना फैसला साफ देती है किसे रखना है, किसे बदलना है। लेकिन जनता के फैसले को चुनौती देने का सिलसिला लगातार लंबा होता जा रहा है। और इस बार इस रवैये पर सबसे कड़ी टिप्पणी एक युवा नेता ने की है—यह अपने आप में एक संकेत है कि नई पीढ़ी की राजनीति पुरानी शैली की नकारात्मकता को स्वीकारने के मूड में नहीं है।
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युवा राजनीति की नई भाषा और पुरानी राजनीति की चुनौती
शांभवी चौधरी ने यह भी कहा कि विपक्ष का काम सिर्फ़ हार को नकारना नहीं, बल्कि यह समझना है कि जनता ने उन्हें क्यों नकारा। असल मुद्दों पर बात करने, अपने भीतर झांकने और जनता के सवालों के जवाब देने की जिम्मेदारी विपक्ष की है, न कि चुनाव आयोग, ईवीएम या प्रशासन पर आरोप लगाने की। उनकी बातों में अनुभव की कठोरता नहीं, बल्कि युवाओं की साफ-सुथरी राजनीति की झलक थी—जहाँ राजनीति लड़ाई नहीं, जनता का भरोसा जीतने की प्रक्रिया होती है।
जनता के फैसले पर सवाल उठाने की प्रवृत्ति पर वार
महागठबंधन ने चुनाव प्रचार में बेरोज़गारी, शिक्षा, और बदहाल अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दों को उठाया, लेकिन शायद जनता उन वादों को लेकर आश्वस्त नहीं हो पाई। दूसरी ओर, एनडीए ने संगठन और रणनीति के बल पर चुनावी जमीन को मजबूत रखा। जनता ने अपना फैसला दिया, और वही फैसला अब राजनीतिक विमर्श का आधार है। लेकिन हार के बाद विपक्ष का प्रतिक्रियात्मक रवैया उस निर्णय का सम्मान नहीं कर पा रहा—यही चिंता शांभवी की बातों में साफ झलकती है।
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लोकतंत्र में हार से सीखने की संस्कृति का महत्व
पुण्य प्रसून वाजपेयी की शैली में कहें तो यह सिर्फ़ एक युवा नेता का बयान नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा में गूंजती वह फुसफुसाहट है, जो कहती है कि राजनीति में जीत-हार का खेल नहीं बदलता, लेकिन उसे स्वीकारने की सभ्यता बदलनी चाहिए। चुनाव परिणाम किसी भी दल की नियति का फैसला नहीं, बल्कि जनता के मूड का आईना होते हैं। इस आईने को धुंधला करके देखने की कोशिश राजनीति को और भी अंधेरे में धकेल देती है। शांभवी चौधरी का संदेश साफ है—जनता ने जो कहा, उसे सुनो। जो नकारा, उससे सीखो। और जो स्वीकार किया, उसे सम्मान दो। क्योंकि यही लोकतंत्र की असली परंपरा है और यहीं से शुरू होती है नई राजनीति की राह।
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