BJP vs Congress war of words: भारतीय राजनीति में आरोप–प्रतिआरोप नए नहीं हैं, लेकिन जब सत्ताधारी दल का कोई प्रमुख चेहरा विपक्ष पर यह कहे कि ‘कांग्रेस आज गद्दारों की फौज़ बन चुकी है’, तो बात सिर्फ राजनीतिक कटाक्ष नहीं रह जाती यह लोकतंत्र के विमर्श में एक गंभीर सवाल बनकर उभरती है। भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता गौरव भाटिया ने कांग्रेस पर बाहरी ताकतों के प्रभाव, राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर दोहरे रवैये और देश की संप्रभुता पर सवाल खड़े करने वाले बयानों का हवाला देते हुए यह टिप्पणी की। लेकिन असली सवाल यह है कि यह आरोप राजनीति की ध्रुवीकरण वाली जमीन को कितना और खुरदुरा करता है?
कांग्रेस पर ‘बाहरी ताकतों’ का आरोप कितना तथ्य, कितना राजनीतिक विमर्श?
गौरव भाटिया के बयान के मूल में वह धारणा है, जिसे भाजपा पिछले कई वर्षों से लगातार दोहरा रही है कि कांग्रेस राष्ट्रीय हितों से ज़्यादा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपने लिए सहानुभूति तलाशती है। यानि कहा जा सकता है, यह आरोप केवल एक पार्टी पर नहीं, बल्कि भारतीय लोकतंत्र की आत्मनिर्भरता पर लगाया गया प्रश्नचिन्ह है।

भाटिया का तर्क है कि कांग्रेस जब-जब कठिनाई में घिरती है, वह विदेशी एजेंसियों या अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार मंचों का सहारा लेती है। वह इशारा करते हैं राहुल गांधी के विदेश दौरों पर दिए बयानों की ओर, जिन्हें भाजपा अक्सर भारत की छवि धूमिल करने वाला बताती है। परंतु यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है क्या भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में राजनीतिक विरोध इतना असहज हो चुका है कि असहमति को गद्दारी की उपाधि दे दी जाए?
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सवाल यह भी कि कांग्रेस की राजनीति कहां फिसली?
कांग्रेस के भीतर एक संरचनात्मक कमजोरी वर्षों से दिखाई देती रही है नेतृत्व पर प्रश्न, संगठन का ढीलापन और जनभावनाओं से दूरी। जब भाजपा जैसे अत्यंत संगठित चुनावी तंत्र वाली पार्टी लगातार जमीन पर सक्रिय हो, तब कांग्रेस की सुस्ती उसे और कमजोर करती है। ‘राजनीति केवल विचारधारा का खेल नहीं, जमीन की नब्ज़ को पकड़ने की कला भी है।‘यही वह जगह है जहां कांग्रेस पिछड़ती नज़र आती है। भाटिया के आरोपों को मजबूती इसलिए मिलती है क्योंकि कांग्रेस खुद अपने दायरे में संवादहीनता और तीखे आंतरिक मतभेदों से घिरी दिखती है।
भाजपा की रणनीति विपक्ष को ‘राष्ट्र-विरोध’ के चश्मे से देखना
भाजपा की राजनीति में यह पैटर्न नया नहीं है, जहां वह हर असहमति को राष्ट्रीयता के दायरे में तौलती है। भाटिया का बयान भी इसी रणनीतिक ढाँचे का हिस्सा दिखाई देता है।
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इस रणनीति का उद्देश्य स्पष्ट है,
- कांग्रेस को विचारहीन विपक्ष के रूप में स्थापित करना
- उसके बयानों को ‘देश-विरोधी’ फ्रेम में पेश करना
- जनता के बीच राष्ट्रवादी भावना को और मजबूत करना
लेकिन यह भी साफ है कि यह रणनीति भाजपा तभी अपनाती है जब उसे विश्वास हो कि चुनावी माहौल में यह मुद्दा उसके लिए लाभकारी साबित होगा।
क्या विपक्ष की भूमिका ही सबसे बड़ा सवाल है?
भारत में लोकतंत्र एक बहुपत्रीय संवाद का नाम है, जहां सत्ता और विपक्ष दोनों को समान रूप से जिम्मेदार माना जाता है। लेकिन जब विपक्ष को बार-बार ‘गद्दार’, ‘राष्ट्र-विरोधी’, ‘बाहरी प्रभाव वाला’ जैसे विशेषणों में बांध दिया जाता है, तो असल मुद्दे गायब होने लगते हैं। दुनिया की नजर में यह राजनीति का वह दौर है जहाँ विमर्श मुद्दों पर नहीं, बल्कि आरोपों के मैदानी शोर में सीमित हो गया है। किसानों की समस्या, बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे गंभीर विषय राजनीतिक भाषणों में पीछे छूट जाते हैं।
बयान सिर्फ आरोप नहीं, लोकतंत्र की दिशा का संकेत
गौरव भाटिया का बयान कांग्रेस पर सीधे-सपाट हमला है, लेकिन इसका प्रभाव इससे कहीं बड़ा है। यह उस राजनीतिक परिवेश को दर्शाता है जहां बहसें विचारों पर नहीं, बल्कि ‘कौन देशभक्त और कौन देशद्रोही’ जैसे द्विआधारी प्रश्नों पर केंद्रित हो चुकी हैं। कांग्रेस में कमियां हैं यह खुद उसके नेता भी स्वीकारते रहे हैं। भाजपा को राजनीतिक लाभ मिलता है यह भी निर्विवाद है। लेकिन लोकतंत्र का असली संकट तब पैदा होता है जब सवालों की जगह विशेषण ले लेते हैं, और विपक्ष की भूमिका पर शक का चश्मा थोप दिया जाता है। आज की भारतीय राजनीति इस मोड़ पर खड़ी है…जहां आरोपों की ‘गद्दारों वाली’ भाषा चुनाव जीत सकती है, पर लोकतांत्रिक संवाद को कमजोर कर देती है।
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