Social Harmony: एक छोटे से शहर में रहने वाला मुस्लिम परिवार हर साल दिवाली की रोशनी को दूर से निहारता है। लेकिन इस बार कुछ अलग था। परिवार के दो छोटे बेटों ने जिद की — “अम्मी, हम भी दिवाली पर दीये जलाएंगे।”
माँ ने पहले हिचकिचाया, फिर बेटे की मासूम आँखों में चमक देखकर धीरे से कहा — “ठीक है, लेकिन बाहर किसी को बताना मत।”
इस एक वाक्य में पूरे समाज का डर छिपा था — एक ऐसा डर जो प्रेम और परंपरा के बीच दीवार बनाता है।

सड़क के किनारे, पर दिल में उजाला
रात के अंधेरे में परिवार चुपचाप घर से निकला। बच्चे छोटे मिट्टी के दीये लेकर सड़क किनारे पहुंचे। वहाँ उन्होंने कुछ मोमबत्तियाँ जलाईं, पटाखे नहीं फोड़े, बस दीयों की रोशनी में मुस्कुराए। किसी ने देखा तो शायद कहा होगा — “ये लोग तो अलग मजहब के हैं, ये दिवाली क्यों मना रहे हैं?” लेकिन उस वक्त उनके दिल में सिर्फ एक भावना थी — “रोशनी किसी धर्म की नहीं होती, यह तो इंसानियत की होती है।”
समाज का दबाव और मौलवियों का डर
परिवार जानता था कि अगर मोहल्ले में किसी को पता चल गया तो बातें फैलेंगी। समाज उन्हें “गुनाहगार” कहेगा, और शायद स्थानीय मौलवी उन पर फतवा भी जारी कर देंगे। इस डर के चलते उन्होंने अपने ही घर में खुशियों को छिपा लिया। यही डर किसी भी समाज में सबसे बड़ा अंधकार है — जब कोई व्यक्ति अपने दिल की खुशी को भी गुनाह समझने लगे।
एक सवाल समाज से
क्या किसी त्यौहार की खुशी मनाना केवल एक धर्म की सीमाओं में बंधा होना चाहिए? क्या यह गलत है कि एक परिवार इंसानियत, दोस्ती और साझा संस्कृति का सम्मान करते हुए किसी और की परंपरा में खुशी ढूंढे? भारत की असली ताकत “गंगा-जमुनी तहज़ीब” में है — जहाँ दीया जलाने वाला और इफ्तार कराने वाला एक-दूसरे के त्यौहार में शामिल होता है।
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धार्मिक नेता और जिम्मेदारी
धर्म समाज को जोड़ने का माध्यम है, तोड़ने का नहीं। ऐसे में मौलवियों, पंडितों और पुजारियों की जिम्मेदारी बनती है कि वे लोगों को मानवता के धर्म की ओर प्रेरित करें।
अगर किसी मुस्लिम बच्चे को दीये की रोशनी पसंद है या किसी हिंदू बच्चे को ईद की सिवइयाँ, तो इसे रुकावट नहीं, अपनापन समझना चाहिए।
संवेदनशील संदेश
यह कहानी सिर्फ एक परिवार की नहीं, बल्कि उस सोच की भी है जो आज के समय में पनपनी चाहिए — कि त्यौहार खुशी बाँटने का माध्यम हैं, धर्म प्रचार का नहीं। त्यौहार हमें सिखाते हैं कि अच्छाई और बुराई की जंग में इंसानियत हमेशा जीतती है। और यही असली दिवाली है — जब दिलों के अंधेरे मिटते हैं।
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रोशनी किसी धर्म की नहीं
यह लेख किसी धर्म या समुदाय पर आरोप नहीं, बल्कि आत्मचिंतन का आग्रह है। अगर एक परिवार डर के साए में दिवाली मना रहा है, तो हमें यह समझना होगा कि समाज को अंधकार से नहीं, सोच से उजाला चाहिए। दिवाली सिर्फ हिंदुओं की नहीं, उस हर इंसान की है जो अंधेरे में रोशनी ढूँढना चाहता है।
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