Neha Singh Rathor: बिहार की सियासत में जब से माइक थामने वाले गायक-गायिकाओं ने ‘माइक से माइक तक’ का सफर तय करना शुरू किया है, तब से एक नई बहस छिड़ गई है—कला बनाम राजनीति। इस बहस में अब जुड़ गया है एक नया नाम—नेहा सिंह राठौर। वही नेहा, जिनकी पहचान कभी “बिहार में का बा” गीत से बनी थी, अब “बिहार में नेता का बा” टाइप तंज कसे जाने लगे हैं। और जब नेहा खुद गायक-गायिकाओं पर व्यंग्य कसें कि “अब सबको विधायक बनने की तलब लग गई है”, तो सवाल उठना लाजमी है—क्या ये व्यंग्य है या बौखलाहट?
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पहला सुर: गायक बनाम विधायक
बिहार में इन दिनों एक नया ट्रेंड चला है। जो कल तक मंच पर गा रहा था, आज मंच से भाषण दे रहा है। कहीं पवन सिंह का नाम टिकट की चर्चा में है, तो मोनालिसा और खेसारी लाल जैसे नाम भी राजनीति की गलियों में फुसफुसाए जा रहे हैं। ऐसे में जब नेहा सिंह राठौर ने व्यंग्य किया कि “बिहार के गायकों को अब राजनीति का चस्का लग गया है,” तो ऐसा लगा मानो कोई पुराने वादक का मनपसंद तबला किसी और के हाथ लग गया हो।
अब जनता पूछ रही है “दीदी, जब आपने माइक उठाकर सत्ता को ललकारा था, तब क्या वो राजनीति नहीं थी?” वो “बिहार में का बा” गाना सिर्फ कला नहीं था, वो भी तो एक राजनीतिक घोषणापत्र जैसा ही था, बस लय में लिपटा हुआ।
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दूसरा सुर: आलोचना की आदत या पहचान की ज़रूरत?
नेहा सिंह राठौर को हम सबने तब जाना, जब उन्होंने अपने गीतों के ज़रिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ की नीतियों पर तंज कसा।
वो जनता की आवाज़ बनीं, लेकिन अब वही जनता पूछ रही है। “दीदी, अब चुप क्यों हैं?” क्योंकि मंच वही है, सुर वही है, लेकिन राग बदल गया है। पहले ‘प्रश्न पूछने’ की कला थी, अब ‘प्रश्न झेलने’ की नौबत है।
कभी उन्होंने कहा था-
“बिहार में का बा?”
तो जनता ने जवाब दिया था—“दीदी, सवाल तो ठीक है, पर हल कहां है?”
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तीसरा सुर: बौखलाहट का संगीत
“खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे”—कहावत तो पुरानी है, लेकिन इसका नया उदाहरण नेहा सिंह राठौर ने पेश किया है। जब हर तरफ से खबरें आईं कि भोजपुरी कलाकार चुनावी मैदान में उतरने को तैयार हैं, तब नेहा का बयान आया।“अब सबको विधायक बनने की तलब लग गई है!” अब सवाल ये कि क्या ये ‘तलब’ दूसरों में दिख रही है, या खुद में ‘अवसर’ न मिलने की टीस है? क्योंकि जो कभी सत्ता से सवाल करने वाली आवाज़ थीं, आज वही दूसरों की महत्वाकांक्षा पर तंज कस रही हैं। क्या ये वही नेहा नहीं, जिन्होंने कहा था कि कलाकार को समाज का आईना होना चाहिए? तो अब जब दूसरे कलाकार समाज बदलने की कोशिश कर रहे हैं, तो उन्हें आईना क्यों चुभ रहा है?
चौथा सुर: जनता की अदालत में ‘नेहा राग’
जनता के बीच अब नेहा का राग थोड़ा बेसुरा लगने लगा है। लोग कह रहे हैं।“नेहा दीदी का गाना तो अच्छा था, पर राजनीति में गाने से नहीं, करने से पहचान बनती है।” शायद यही कारण है कि जनता अब नेहा की नई पोस्ट्स पर कम लाइक्स और ज़्यादा सवाल भेज रही है। राजनीति में कलाकारों का प्रवेश कोई नया चलन नहीं है। उत्तरी भारत से लेकर दक्षिण तक—राजा से लेकर रजनीकांत तक—हर किसी ने राजनीति में अपनी किस्मत आज़माई है।लेकिन नेहा का दर्द शायद यही है कि उन्हें किसी पार्टी ने ‘आमंत्रण’ नहीं दिया। और जो खुद को जनता की आवाज़ बताती थीं, उन्हें अब जनता की राजनीति ‘शोर’ लगने लगी है।
पांचवां सुर: शैली में तंज
“तो क्या नेहा सिंह राठौर को गाना बंद कर देना चाहिए था, जब उन्हें टिकट नहीं मिला? या फिर ये वही आवाज़ है जो कभी ‘बिहार में का बा’ गाकर व्यवस्था पर प्रहार करती थी, और अब उसी व्यवस्था के आस-पास घूम रही है, बस सुर बदल गए हैं। सवाल ये भी है। क्या नेहा अब सत्ता से नहीं, सत्ता के पास रहना चाहती हैं?”
और कैमरे की नज़र में आते-आते नेहा का चेहरा थोड़ा धुंधला हो जाता । क्योंकि व्यंग्य के बीच सच्चाई भी यही है। राजनीति वो रंगमंच है, जहां हर कोई गा सकता है, पर हर किसी का गाना सुना नहीं जाता।
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छठा सुर: “नेहा, अब जनता गा रही है”
बिहार में अब जनता गा रही है ।
“बिहार में नेता का बा…!” नेहा के लिए यह वक्त है ठहरकर सोचने का, क्या वो फिर से जनता की आवाज़ बनेंगी, या सत्ता से रूठे कलाकार की तरह बस ट्वीट करती रह जाएंगी? कला और राजनीति दोनों में फर्क यही है। कला दिल से निकलती है, राजनीति दिमाग से। नेहा ने दिल से गाया था, लेकिन अब जो बोल रही हैं, वो किसी बौखलाहट की बेसुरी झंकार लग रही है। नेहा सिंह राठौर को शायद अब एहसास हो रहा है कि “सवाल पूछने” से ज्यादा मुश्किल है “सवाल झेलना”। वो जिन नेताओं को कभी गीतों में आईना दिखाती थीं, आज वही जनता उन्हें आईना दिखा रही है। और अब ये कहावत बिहार के राजनीतिक रंगमंच पर फिर से सच साबित होती दिख रही है । “खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे — और जब कलाकार से नेता बनने का मौका छूट जाए, तो बयान देने की बारी आ जाती है।”
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