Rajiv Gandhi: भारतीय राजनीति के इतिहास में जब-जब झांकी देखते हैं, तो अक्सर हमारे सामने टकराव, कड़वाहट और कटु बयानबाजी वाले दृश्य ही आते हैं। सत्ता और विपक्ष के बीच तल्खी हमेशा दिखाई देती है। लेकिन इसी राजनीति के इतिहास में कुछ ऐसे पल भी दर्ज हैं, जो यह दिखाते हैं कि इंसानियत राजनीति के आगे खड़ी होती है। यह कहानी है, 1980 के दशक के अंत की—राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के बीच की।
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पृष्ठभूमि और दौर
राजीव गांधी उस वक्त देश के प्रधानमंत्री थे। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद वे अचानक सत्ता में आए थे और देश को एक नई दिशा देने की कोशिश कर रहे थे। दूसरी तरफ अटल बिहारी वाजपेयी—उस दौर में भारतीय जनता पार्टी के सबसे बड़े चेहरे, लेकिन संसद में उनका कद उस वक्त इतना बड़ा नहीं था, जितना बाद में हुआ।
1984 में जब कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज की और भाजपा मात्र दो सीटों पर सिमट गई, तो वाजपेयी ग्वालियर से भी चुनाव हार गए। ऐसे में संसदीय राजनीति तो उनके पास राज्यसभा के जरिये थी, लेकिन निजी जीवन में वे आर्थिक तंगी और स्वास्थ्य से जूझ रहे थे।
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बीमारी की घड़ी
वाजपेयी को किडनी की गंभीर बीमारी हो गई। इलाज आसान नहीं था। भारत में उस दौर में न डायलिसिस की सुविधा व्यापक रूप से उपलब्ध थी और न ही किडनी ट्रांसप्लांट का आधुनिक विकल्प। डॉक्टरों ने साफ कह दिया कि अमेरिका जाकर ही बेहतर इलाज हो सकता है। मगर सवाल था—जाएंगे कैसे? विदेशी इलाज खर्च का बोझ उठाना किसी एक इंसान के बस की बात नहीं थी, खासकर तब जब वाजपेयी खुद आर्थिक संकट से गुजर रहे थे।
राजीव गांधी का फैसला
यहीं से इस कहानी का असली मोड़ शुरू होता है। प्रधानमंत्री राजीव गांधी को जब इस मसले की जानकारी दी गई, तो उन्होंने एक पल के लिए भी राजनीति और विपक्षी पहचान को आड़े नहीं आने दिया। राजीव गांधी ने तत्काल फैसला किया कि वाजपेयी को संयुक्त राष्ट्र महासभा में भारतीय प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा बनाया जाए। यह आधिकारिक अमेरिकी यात्रा होती, और सारा खर्च सरकार उठाती।
कहने को यह महज एक सरकारी प्रक्रिया थी, मगर भीतर यह कदम इंसानियत का था। राजनीति में अपने सबसे बड़े आलोचक और प्रतिद्वंद्वी को जीवनदान देने जैसा था।
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न्यूयॉर्क का इलाज और “मौत से ठन गई”
सरकारी दौरे के बहाने वाजपेयी अमेरिका पहुंचे। न्यूयॉर्क के माउंट सिनाई अस्पताल में उनका इलाज हुआ। किडनी ऑपरेशन हुआ और सफल भी रहा। वाजपेयी का जीवन बच गया।
वहीं अस्पताल के बिस्तर पर लेटे-लेटे, मौत से आंख मिलाते हुए उन्होंने वह प्रसिद्ध कविता लिखी—”मौत से ठन गई”। यह कविता एक नेता के ही नहीं, बल्कि एक आम इंसान के जीवन से संघर्ष की गवाही बन गई।
प्रचार नहीं, संबंधों की मिसाल
दिलचस्प बात यह थी कि राजीव गांधी ने अपनी इस मदद को कभी सार्वजनिक नहीं किया। न मंच से कहा, न अखबारों में इसकी सुर्खियां बनवाईं। यह उस दौर का राजनीतिक संस्कार था—जहां मानवीय संवेदना को दिखावा नहीं, बल्कि निजी रिश्तों की तरह निभाया जाता था।
दूसरी तरफ वाजपेयी ने इसे अपने दिल में हमेशा संजो कर रखा। उन्होंने कई दफा अपनी कविताओं और भाषणों में इशारों में इसका जिक्र किया। लेकिन खुलकर अपने दिल की बात तब कही, जब 1991 में राजीव गांधी की हत्या हो गई।
वाजपेयी की स्वीकारोक्ति
राजीव गांधी की हत्या के बाद पूरा देश स्तब्ध था। एक ऐसा नेता जिसने आधुनिक भारत को कंप्यूटर और संचार तकनीक की दिशा दी, असमय दुनिया छोड़ गया। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी बेहद भावुक हुए।
करण थापर के कार्यक्रम ‘Eyewitness’ में उन्होंने पहली बार राज खोला। उनका वाक्य आज भी गूंजता है—”अगर आज मैं जिंदा हूं, तो राजीव गांधी की वजह से।”
यह वाक्य न केवल कृतज्ञता दिखाता है, बल्कि यह कहता है कि राजनीति से ऊपर इंसानियत की एक डोर होती है, जो सबसे मजबूत होती है।
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चुनावी मंच पर जोखिमभरी तारीफ
1991 के आम चुनाव के दौरान भी वाजपेयी ने राजीव गांधी की उदारता का उल्लेख किया। यह करना उस दौर में आसान नहीं था, क्योंकि राजनीति में विपक्षी नेता की तारीफ करना अक्सर अपने ही दल के भीतर सवाल खड़े कर देता है। मगर वाजपेयी ने यह जोखिम लिया। उन्होंने कहा कि राजीव गांधी ने उन्हें “छोटे भाई” की तरह माना और जीवन बचाने में मदद की।
रिश्ता नेहरू-गांधी परिवार के साथ
यहां यह भी याद करना जरूरी है कि अटल बिहारी वाजपेयी का नेहरू-गांधी परिवार के साथ रिश्ता केवल विरोध का नहीं था। इंदिरा गांधी के बारे में 1971 के युद्ध के बाद उन्होंने कहा था कि उन्होंने “दुर्गा” का रूप धारण किया है।
इसी कड़ी में राजीव गांधी के प्रति उनका यह स्वीकारोक्ति भरा सम्मान सिर्फ एक इंसानी रिश्ते का नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति के उस दौर की झलक थी, जहां विरोधी दलों में भी व्यक्तिगत स्तर पर गहरा सम्मान दिखता था।
आज के लिए सबक
आज जब भारतीय राजनीति का मिजाज देखिए—तो यह घटना किसी लोककथा जैसी लगती है। आज के दिन सत्ता और विपक्ष के नेताओं का संवाद सोशल मीडिया की कटु राजनीति तक सिमट गया है। आरोप-प्रत्यारोप और नफ़रत का बोलबाला है।
ऐसे में 1980 के दशक की यह घटना हमें याद कराती है कि राजनीति केवल कुर्सी की लड़ाई नहीं है। राजनीति के भीतर भी इंसानियत जिंदा रहती है। राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी का यह प्रसंग भारतीय राजनीति का स्वर्णिम पन्ना है, जो यह बताता है कि विरोधाभासों के बावजूद सहयोग और उदारता हमेशा सम्मानित होती है।
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एक प्रधानमंत्री, जिसने अपने सबसे बड़े विपक्षी की जान बचाने के लिए व्यवस्था की। एक विपक्षी नेता, जिसने अपनी पूरी जिंदगी उस उपकार को नहीं भूला। यही है भारतीय राजनीति का वह मानवीय पहलू, जिसे आज दोहराने की जरूरत है।
राजनीति में विचारधारा और सत्ता बदलती रहती है, लेकिन इंसानियत और रिश्ते—वही स्थायी मूल्य हैं। अटल बिहारी वाजपेयी और राजीव गांधी की यह कहानी हमें यही सिखाती है कि राजनीति से ऊपर उठकर भी “इंसान” बने रहना ही असली नेतृत्व की पहचान है।
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