TV TODAY BHARAT LIVE: यह कहानी सिर्फ एक अपराधी की नहीं, बल्कि उस दौर की है जब लोकतंत्र की छाया में गुंडाराज पलता था। बिहार का सीवान — एक ऐसा जिला, जहां शाम होते ही सन्नाटा छा जाता था। लोग अपने दरवाज़े बंद कर लेते थे और बच्चे शाहाबुद्दीन आ जाएगा सुनकर डर जाते थे। वह दौर था जब सीवान में पुलिस नहीं, शाहाबुद्दीन का फरमान चलता था।

‘एसिड कांड’ खून, डर और सत्ता की मिलीभगत
16 अगस्त 2004 की रात थी। सीवान की गौशाला रोड पर राजीव किराना स्टोर में कुछ नकाबपोश बदमाश घुसे। उन्होंने 2 लाख की रंगदारी मांगी ‘साहब का नाम सुना है न?’ राजीव ने विरोध किया, तो गुंडों ने उसे पीटना शुरू कर दिया। भाई गिरीश ने डर में बाथरूम से एक बोतल उठाई — तेज़ाब (एसिड) — और चिल्लाया, “पास मत आना! गुंडे भागे, लेकिन कुछ देर बाद लौटे — इस बार अपने ‘साहब’ के हुक्म पर। राजीव, गिरीश और सतीश तीनों भाइयों को उठा लिया गया। प्रतापपुर के गन्ने के खेतों में ले जाया गया। वहां ‘दरबार’ लगा था और दरबार में बैठे थे शाहाबुद्दीन, RJD के ताकतवर सांसद। शाहाबुद्दीन ने आदेश दिया ‘दोनों को एसिड से नहला दो।’
फिर क्या था बोतलें खुलीं, तेज़ाब उड़ा, चीखें गूंज उठीं। गिरीश और सतीश ज़िंदा जलते रहे। धुआं, सड़न और इंसानियत की मौत सब एक साथ हुआ। राजीव को बंधक बना लिया गया, और पिता चंदा बाबू से फिरौती मांगी गई।
एक बूढ़े पिता की जिद ‘मैं डरूंगा नहीं‘
तीसरे दिन राजीव किसी तरह भाग निकला। वह घर पहुंचा, बुरी तरह घायल और टूट चुका था। पिता चंदा बाबू सब सुनकर थर्रा उठे पर रुके नहीं। वह थाने पहुंचे, पर वहां अधिकारी कांप रहे थे।“आप नहीं जानते, किससे टकरा रहे हैं,” थानेदार ने कहा।लेकिन चंदा बाबू रुके नहीं। डीआईजी तक पहुंचे, तब जाकर एफआईआर दर्ज हुई।वह दिन था जब एक पिता ने अकेले उस आतंक के खिलाफ खड़ा होना चुना, जिसके आगे सरकारें झुकती थीं।
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अदालत में गवाही और एक बेटे की शहादत
मामला कोर्ट पहुंचा। 70 साल के चंदा बाबू ने अदालत में गवाही दी, शाहाबुद्दीन को पहचानकर कहा ‘यही है जिसने मेरे बेटों को जलाया।” राजीव, जो इकलौता चश्मदीद था, उसे 19 जून 2014 को गवाही देनी थी। लेकिन 16 जून को, यानी गवाही से तीन दिन पहले, उसे गोलियों से छलनी कर दिया गया।यह कोई हत्या नहीं थी, यह न्याय की उम्मीद की हत्या थी।
जेल में भी ‘राजा’ शाहाबुद्दीन का साम्राज्य
राजद शासन के दौरान शाहाबुद्दीन अछूत था। जब तक लालू-राबड़ी की सरकार थी, पुलिस उसकी चौखट नहीं पार करती थी।2005 में जब नीतीश कुमार सत्ता में आए, और राष्ट्रपति शासन लगा तभी जाकर शाहाबुद्दीन की गिरफ्तारी हुई। पर जेल उसके लिए सज़ा नहीं थी, दरबार थी।
सीवान जेल उसका साम्राज्य थी। हर शाम लोग उसकी “कोर्ट” में आते, विवाद सुलझाते, हुक्म सुनते। जेलर और अफसर उसके आगे सिर झुकाए रहते। 2017 में उसे दिल्ली की तिहाड़ जेल भेजा गया तब जाकर सीवान ने पहली बार राहत की सांस ली।
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मौत, लेकिन न्याय अधूरा
कोविड के दौरान, 2021 में शाहाबुद्दीन की मौत हो गई। सरकारी रिपोर्ट कहती है, प्राकृतिक मृत्यु। लेकिन सीवान की गलियों में आज भी लोग कहते हैं,’उसकी मौत नहीं, हिसाब बाकी रह गया।’
अपराध की विरासत – बेटा उसामा की सियासत में एंट्री
आज कहानी वहीं लौट आई है जहां से शुरू हुई थी।शाहाबुद्दीन का बेटा, उसामा शाहाबुद्दीन, राजद के टिकट पर सीवान की रघुनाथपुर सीट से चुनाव लड़ रहा है। लोग कहते हैं- पिता ने आतंक से शासन किया, बेटा अब वोट से वही विरासत निभाना चाहता है।’ यह वही बिहार है, जहां चंदा बाबू जैसे पिता आज भी गुमनाम हैं, और शाहाबुद्दीन जैसे अपराधी पोस्टर पर मुस्कुराते हैं।
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सवाल ज़िंदा है
यह कहानी किसी शाहाबुद्दीन की नहीं, उस सिस्टम की है जो सत्ता के नीचे अपराध की छाया को पालता है। चंदा बाबू ने अपने तीन बेटों को खोया, पर देश को दिखाया कि एक बूढ़ा आदमी भी न्याय के लिए खड़ा हो सकता है। आज सवाल सिर्फ इतना है- क्या सीवान कभी उस डर से आज़ाद हो पाया? या फिर शाहाबुद्दीन के मरने के बाद भी, उसका “खौफ़” अब राजनीति का चेहरा बन चुका है? अपराधी मर जाते हैं,
पर अगर समाज खामोश रहे तो अपराध जिंदा रहता है।
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