Bihar Deputy CM Samrat Chaudhary Vijay Sinha: बिहार की राजनीति एक बार फिर उसी बिंदु पर लौट आई है, जहाँ चेहरों में बदलाव से ज्यादा सत्ता के समीकरण खुद को दोहराते दिखते हैं। पटना में सोमवार को भाजपा विधायक दल की बैठक आयोजित हुई धर्मेंद्र प्रधान, जो बिहार चुनाव प्रभारी रहे, और केंद्रीय पर्यवेक्षक के रूप में आए केशव प्रसाद मौर्य की मौजूदगी में। बैठक का स्वरूप जितना औपचारिक था, निर्णय उतना ही पूर्व-निर्धारित। सम्राट चौधरी को बीजेपी विधायक दल का नेता चुना गया और विजय कुमार सिन्हा को उपनेता। मतलब यह कि दोनों नेताओं को फिर एक बार बिहार के उपमुख्यमंत्री की कुर्सी नसीब हुई है।
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लेकिन इस घोषणात्मक औपचारिकता के भीतर कई अनकहे सवाल हैं, जो बिहार की राजनीति को समझने के लिए जरूरी हो जाते हैं। चुनाव परिणामों के बाद सत्ता-गणित की पहली सीढ़ी पर बीजेपी बिना किसी संदेह के सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। ऐसे में डिप्टी सीएम जैसे पदों पर दो चेहरों को दोबारा मौका देना—क्या यह रणनीति की निरंतरता है या दल के भीतर संभावित असंतुलन को साधने का तरीका? यह सवाल इसलिए भी अहम है क्योंकि बिहार की राजनीति में चेहरे बदलना आसान है लेकिन सत्ता का संदेश बदलना कठिन।
सम्राट चौधरी: आक्रामक तेवर और संगठन का संतुलन
सम्राट चौधरी पिछले कुछ वर्षों में बिहार में बीजेपी का सबसे आक्रामक और सुस्पष्ट चेहरा बनकर उभरे हैं। उनकी भाषा, उनके बयान, उनका राजनीतिक संवाद सबमें एक आक्रामक धारा साफ दिखाई देती है। चुनाव अभियान के दौरान भी उन्होंने लगातार महागठबंधन पर हमला बोला और एनडीए की स्थिति मजबूत करने में तीखी भूमिका निभाई।
उनको दोबारा डिप्टी सीएम बनाना यह संकेत देता है कि पार्टी अपने कोर वोटर और अपने संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करने के लिए उसी शैली को आगे बढ़ाना चाहती है। सम्राट चौधरी की राजनीतिक शैली बीजेपी के लिए वोटर को उत्साहित करने की भूमिका निभाती है। यह वही राजनीति है जिसमें नेतृत्व बदलने की बजाय चेहरों को मजबूती देने पर जोर होता है।
विजय सिन्हा: शांत, सधे हुए और प्रशासनिक समन्वय का चेहरा
सम्राट चौधरी के बिल्कुल उलट विजय कुमार सिन्हा की पहचान एक शांत, संयमित और प्रशासनिक समझ वाले नेता के रूप में है। उनकी शैली टकराव से दूर, संवाद आधारित, और सरकारी तंत्र के भीतर सहज काम करने वाली है। बीजेपी ने उन्हें एक बार फिर उपनेता और डिप्टी सीएम बनाकर यह संदेश दिया है कि पार्टी राजनीतिक आक्रामकता और प्रशासनिक स्थिरता दोनों को साथ लेकर चलने की रणनीति पर कायम है। विजय सिन्हा का दूसरा कार्यकाल यह भी दर्शाता है कि बीजेपी चुनावी जीत के बाद स्थिर प्रशासन को प्राथमिकता देना चाहती है। बिहार जैसे संवेदनशील राज्य में यह संतुलन राजनीति का मूल मंत्र है।
क्या यह बदलाव है या निरंतरता का संकेत?
विधायक दल की बैठक में लिया गया यह निर्णय देखने में भले नया लगे, लेकिन इसकी परतों में पुरानी रणनीति ही दोहराई गई है। चुनाव में बहुमत के साथ सत्ता में लौटने के बाद बीजेपी के सामने यह विकल्प था कि वह नए चेहरों को सामने लाए या फिर उसी टीम को दोबारा मौका दे जिसने पिछले कार्यकाल में पार्टी की स्थिति मजबूत की।
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सम्राट चौधरी-जनसंपर्क की राजनीति।
विजय सिन्हा-प्रशासनिक समन्वय की राजनीति।
इन दोनों के बीच संतुलन वही मॉडल है जिसे बीजेपी लंबे समय से बिहार में अपनाने की कोशिश करती रही है।
नीतीश कुमार के साथ तालमेल और आगे की चुनौती
बिहार में बीजेपी की सत्ता का असली गणित सिर्फ अपनी सीटों से तय नहीं होता, बल्कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ उसकी अनिवार्य साझेदारी से भी तय होता है। नीतीश कुमार अनुभवी नेता हैं—उनकी शैली, उनका राजनीतिक व्यवहार और उनका क्षेत्रीय आधार बीजेपी के लिए जरूरी है। लेकिन यही तालमेल कई बार तनाव भी पैदा करता है।
ऐसे में सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा जैसे दो नेताओं को एक साथ रखना यह बताता है कि पार्टी संतुलन साधने के लिए दो तरह के राजनीतिक तेवरों को एक साथ आगे कर रही है—एक जनता के बीच मजबूत उपस्थिति वाला, और दूसरा प्रशासनिक स्तर पर सहज समन्वय करने वाला।
निष्कर्ष: बिहार में सत्ता का नया दौर या पुरानी पटकथा?
विधायक दल की बैठक के निर्णय से बिहार की राजनीति का सूत्र बदलता नहीं दिखाई देता। चेहरों के प्रति भरोसे की निरंतरता, सत्ता में स्थिरता की जरूरत, और प्रशासनिक समन्वय की अनिवार्यता इन सबने मिलकर बीजेपी को वही रास्ता चुनने पर मजबूर किया जो पिछले वर्षों में दिखता आया है। सम्राट चौधरी और विजय सिन्हा का दोबारा डिप्टी सीएम बनना सिर्फ एक राजनीतिक घोषणा नहीं है, यह संकेत है कि बिहार में राजनीति बदल रही हो या नहीं लेकिन सत्ता का संतुलन उसी पुराने ढांचे में कायम है। अगर कुछ सचमुच बदल रहा है, तो वह यह कि बिहार अब राजनीतिक प्रयोगों का प्रदेश नहीं, बल्कि स्थिरता और निरंतरता की राजनीति का मैदान बनता जा रहा है।
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