Denting Painting Politics: त्योहार आते हैं, खुशियां लेकर… लेकिन उत्तर प्रदेश के इतिहास में त्योहार का नाम लेते ही सबसे पहले याद आती थी – हिंसा, दंगे और कर्फ़्यू। और अब मुख्यमंत्री कह रहे हैं – “हमने आदतें बदल दी हैं, जिनकी आदतें नहीं बदलतीं, उनकी ‘डेंटिंग-पेंटिंग’ करनी पड़ती है।”
वाह! राजनीति की कार्यशाला में अब लोकतंत्र की मरम्मत भी ‘डेंटिंग-पेंटिंग’ से होगी। जैसे गाड़ियों की टेढ़ी बॉडी सीधी कर दी जाती है, वैसे ही लोगों की ‘टेढ़ी आदतें’ सीधी कर दी जाएँगी। फर्क बस इतना है कि गाड़ी की मरम्मत के बाद चमक बढ़ जाती है, और जनता की मरम्मत के बाद डर बढ़ जाता है।
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बरेली का ज़िक्र करके सीएम ने साफ कहा – “मौलाना भूल गए किसकी सरकार है…” यानी सत्ता का इशारा है कि भूलने की गुंजाइश यहाँ नहीं। सत्ता की स्मृति बड़ी पक्की है, और जो भूल जाएँ, उन्हें याद दिलाने का इंतज़ाम भी पूरा है। पुलिस की लाठियाँ और जेल की सलाख़ें याददाश्त की बेहतरीन गोलियाँ बन चुकी हैं।
अब सोचिए, 2017 के बाद यूपी में कर्फ़्यू तक नहीं लगाना पड़ा। सीएम का दावा है – “हमने बगैर कर्फ़्यू के हालात संभाले।” यानी अब व्यवस्था का नया मंत्र है – “कर्फ़्यू नहीं, सीधे सबक।” सबक भी ऐसा कि अगली पीढ़ियाँ दंगा करने से पहले सात बार सोचें। यह बयान चेतावनी नहीं, सत्ता की घोषणा-पत्र की नई भाषा है।
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लेकिन सवाल भी यही है – यह ‘डेंटिंग-पेंटिंग’ लोकतंत्र की कसौटी पर कहाँ टिकती है? संविधान कहता है – न्याय होगा, प्रक्रिया होगी, निष्पक्षता होगी। पर राजनीति कहती है – सीधी कार्रवाई होगी, “भाषा वही समझाई जाएगी जो वे समझते हैं।” अब जनता समझे या न समझे, लेकिन हुक्मरान मान चुके हैं कि संवाद नहीं, दंड ही सबसे असरदार इलाज है।
त्योहारों की रंगत में जब डर का रंग घुलता है, तब विकास की तस्वीर भी धुंधली हो जाती है। मुख्यमंत्री मंच से कहते हैं – “उत्तर प्रदेश की विकास यात्रा यहीं से शुरू होती है।” मगर विडंबना देखिए – शुरुआत विकास से नहीं, ‘डेंटिंग-पेंटिंग’ से हो रही है। यानी गाड़ी तो चमकेगी, लेकिन पहले हथौड़े की मार से।
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लोकतंत्र की सुंदरता सवाल पूछने में है, और सत्ता की ताक़त जवाब देने में। लेकिन जब सत्ता सवाल पूछने वालों को भी ‘मरम्मत’ का वादा सुनाए, तब समझ लीजिए – असली लोकतंत्र की मरम्मत बाक़ी है।
बरेली में जो हुआ, वह सिर्फ दंगा नहीं, वह सत्ता और समाज के रिश्ते का आईना है। सत्ता कह रही है – “कानून तोड़ोगे तो सजा मिलेगी।” ठीक है, होनी भी चाहिए। लेकिन जब भाषा बदलकर चेतावनी से धमकी में बदल जाती है, तो डर और लोकतंत्र की रेखा एक-दूसरे में घुलने लगती है।
आख़िरकार, “डेंटिंग-पेंटिंग” शब्द जितना हल्का सुनाई देता है, उसका वजन उतना ही भारी है। जनता को अब समझना होगा – यह सिर्फ कानून का संदेश नहीं, बल्कि सत्ता का ऐलान है कि अब शासन का रंग चढ़ेगा, चाहे हथौड़े से, चाहे ब्रश से।
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