Atmanirbhar Bharat: अभिनेत्री और भाजपा सांसद कंगना रनौत ने दिल्ली में मीडिया से बातचीत करते हुए आत्मनिर्भर भारत और खादी की महत्ता को रेखांकित किया। उन्होंने कहा – “मेरे दोस्तों और सभी युवाओं से मेरा अनुरोध है कि अब हमें आत्मनिर्भर भारत की ओर बढ़ना चाहिए। कल मैंने खादी की साड़ी ट्राई की, पूरी साड़ी 1500 रुपये की थी और मुझे बहुत अच्छा लगा। वह कपड़ा जैविक और पर्यावरण के अनुकूल है।”कंगना ने खादी को सिर्फ परिधान नहीं, बल्कि संस्कृति और आत्मनिर्भरता का प्रतीक बताते हुए जनरेशन ज़ेड से इसे अपनाने का आग्रह किया।
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गांधी की खादी से कंगना की खादी तक
यह विडंबना ही है कि जिस खादी ने आज़ादी की लड़ाई में विदेशी कपड़ों के बहिष्कार का आंदोलन खड़ा किया था, वही खादी आज फ़ैशन शो और रैंप वॉक के लिए सजाई जा रही है। महात्मा गांधी की चर्खे वाली खादी अब सियासी शोस्टॉपर के रूप में सामने है।

कंगना का यह बयान सिर्फ़ एक अभिनेत्री या सांसद का बयान नहीं है, बल्कि यह मोदी युग के आत्मनिर्भर भारत की वह तस्वीर है, जिसमें खादी को नए अंदाज़ में ब्रांडिंग किया जा रहा है।
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जनरेशन ज़ेड और खादी की चुनौती
कंगना का संदेश साफ है – “जनरेशन ज़ेड पर्यावरण के प्रति जागरूक है। मैं उनसे अपने घरेलू उद्योगों को बढ़ावा देने का अनुरोध करती हूँ।”
लेकिन सवाल यह है कि क्या वाक़ई जनरेशन ज़ेड, जो इंस्टाग्राम और रील्स की दुनिया में जीती है, खादी की खुरदरी सादगी को अपनाएगी? क्या हज़ारों रुपये की ब्रांडेड जीन्स और स्नीकर्स के बीच 1500 रुपये की खादी साड़ी अपनी जगह बना पाएगी?
यहाँ कंगना की अपील एक तरह से सांस्कृतिक राजनीति का हिस्सा बन जाती है।
आत्मनिर्भर भारत और राजनीतिक फैशन
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत का नारा दिया, उसी नारे को कंगना अपने तरीके से आगे बढ़ाती दिखती हैं। उनका कहना है – “मेक इन इंडिया उनके दिमाग की उपज नहीं, बल्कि उनका अपना बच्चा है।”
यहाँ सवाल उठता है कि क्या आत्मनिर्भर भारत केवल नारे और भाषणों तक सीमित रहेगा, या फिर यह असल में रोज़गार और उद्योग के स्तर पर भी असर डालेगा?
क्योंकि हक़ीक़त यह है कि खादी आज भी सरकारी खादी ग्रामोद्योग केंद्रों तक सिमटी है। बड़े शॉपिंग मॉल में खादी का सेक्शन ढूंढना आज भी मुश्किल है।
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शोस्टॉपर कंगना और राजनीतिक मंच
कंगना रनौत कहती हैं कि प्रधानमंत्री मोदी सिर्फ़ राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक रूप से भी जागरूक हैं। और यही वजह है कि वह उन्हें “शोस्टॉपर” मानती हैं।
यहाँ “शोस्टॉपर” शब्द का इस्तेमाल ध्यान खींचता है। राजनीति जब रैंप वॉक के अंदाज़ में बयानबाज़ी करने लगे और फ़िल्मी सितारे संसद की भाषा तय करने लगें, तो लोकतंत्र का यह नया रंग अपने आप में चर्चा का विषय बन जाता है।
खादी: बाज़ार बनाम विचार
दरअसल खादी सिर्फ़ कपड़ा नहीं है। यह विचार है, यह आंदोलन है। गांधी के दौर में खादी ने विदेशी कपड़ों के खिलाफ़ आंदोलन खड़ा किया। आज उसी खादी को ग्लैमर और फ़ैशन की चमक से जोड़ा जा रहा है।
कंगना का आग्रह अगर सच में उद्योगों को मज़बूत कर सके तो यह स्वागत योग्य होगा। लेकिन खतरा यह है कि कहीं खादी भी सिर्फ़ सेल्फ़ी और सोशल मीडिया पोस्ट का “एस्थेटिक प्रॉप” बनकर न रह जाए।
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निष्कर्ष: खादी का भविष्य किसके हाथ?
कंगना रनौत का यह बयान आत्मनिर्भर भारत की बहस को नया मोड़ देता है। लेकिन असली सवाल यही है –
- क्या खादी फिर से जनता का कपड़ा बनेगी?
- या यह केवल राजनेताओं और सेलेब्रिटीज़ की शोभा तक सीमित रह जाएगी?
- क्या जनरेशन ज़ेड वाक़ई खादी पहनकर अपने पर्यावरणीय दायित्व को निभाएगी?
कंगना ने चर्चा छेड़ी है, लेकिन जवाब अभी जनता को देना है।
“कपड़े का रंग चाहे जो भी हो, लेकिन सवाल यह है कि खादी की तहों में राजनीति का रंग कितना गहरा है। और यही रंग आने वाले समय में तय करेगा कि आत्मनिर्भर भारत सिर्फ़ नारा है या वास्तविकता।”
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